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बुझते सूरज के शरारे नूर बरसाने लगे | शाही शायरी
bujhte suraj ke sharare nur barsane lage

ग़ज़ल

बुझते सूरज के शरारे नूर बरसाने लगे

समद अंसारी

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बुझते सूरज के शरारे नूर बरसाने लगे
रफ़्ता रफ़्ता चाँद तारों में नज़र आने लगे

कर गया बेदार पत्थर को फ़न-ए-ख़ारा-तराश
कितने नादीदा सनम आँखों में लहराने लगे

मौज-ए-बू-ए-गुल से भड़की हैं दबी चिंगारियाँ
फिर हवा के सर्द झोंके जिस्म झुलसाने लगे

कट के रह जाएगी आख़िर क़िस्मत-ए-ग़म की लकीर
तेरे ज़िंदानी अगर ज़ंजीर खड़काने लगे

सर पे सूरज था तो नक़्श-ए-पा भी रौशन थे 'समद'
धूप के ढलते ही साए पाँव फैलाने लगे