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बुझा चुकी है हवा जिस को वो दिया भी मैं | शाही शायरी
bujha chuki hai hawa jis ko wo diya bhi main

ग़ज़ल

बुझा चुकी है हवा जिस को वो दिया भी मैं

एम.अार.क़ासमी

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बुझा चुकी है हवा जिस को वो दिया भी मैं
मगर ये देख बहुत देर तक जला भी मैं

तवील धूप की शिद्दत हवाओं की यूरिश
सही भी मैं ने सर-ए-दश्त-ए-ग़म खिला भी मैं

मिले क़याम के अहकाम भी मुझी को यहाँ
मसाफ़तों का परस्तार एक था भी मैं

मिरे नसीब में पतझड़ के रास्तों का सफ़र
सदा-बहार दयारों से आश्ना भी मैं

मुझी से आई थी मिलने उदास चाँदनी रात
अगर ये जानता होता तो जागता भी मैं

मिरी तरफ़ थीं कभी बारिशें भी फूलों की
हिसार-ए-संग-ओ-सदा में घिरा हुआ भी मैं

ये सोचता हूँ कहूँ ख़ुद को 'क़ासमी'! मैं क्या?
सुकूत भी मिरे अंदर बहुत सदा भी मैं