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बुझ कर भी शो'ला दाम-ए-हवा में असीर है | शाही शायरी
bujh kar bhi shoala dam-e-hawa mein asir hai

ग़ज़ल

बुझ कर भी शो'ला दाम-ए-हवा में असीर है

ज़ेब ग़ौरी

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बुझ कर भी शो'ला दाम-ए-हवा में असीर है
क़ाएम अभी फ़ज़ा में धुएँ की लकीर है

गुज़रा हूँ उस के दर से तो कुछ माँग लूँ मगर
कश्कोल बे-तलब है सदा बे-फ़क़ीर है

जो चाहे अच्छे दामों में उस को ख़रीद ले
वो आदमी बुरा नहीं पर बे-ज़मीर है

दिल पर लगी है सब के वही मोहर बर्फ़ की
ज़ाहिर में गर्म-जोशी-ए-दस्त-ए-सफ़ीर है

ढूँडे से आदमी नहीं मिलता यहाँ पे 'ज़ेब'
यूँ इस दयार-ए-बहर में गौहर कसीर है