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बोलना बादा-कशों से न ज़रा ऐ वाइज़ | शाही शायरी
bolna baada-kashon se na zara ai waiz

ग़ज़ल

बोलना बादा-कशों से न ज़रा ऐ वाइज़

शाद लखनवी

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बोलना बादा-कशों से न ज़रा ऐ वाइज़
कान पकड़ूँगा जो क़ुलक़ुल को सुना ऐ वाइज़

दुख़्तर-ए-रज़ को जो कहता है बुरा ऐ वाइज़
उस अफ़ीफ़ा ने तिरा क्या है किया ऐ वाइज़

जाम-ए-कौसर की जो ख़्वाहिश है दम-ए-बादा-कशी
बज़्म-ए-रिन्दान-ए-क़दह-नोश में आ ऐ वाइज़

जोशिश-ए-शीशा-ओ-साग़र-शिकनी का है बयाँ
मुँह तोड़े कोई बदमस्त तिरा ऐ वाइज़

जाम-ए-मय दौर में ला चर्ख़-ए-कुहन की सूरत
देखता है जो तुझे रंग नया ऐ वाइज़

टूट जाए न कहीं तेरे कड़े हाथों से
दिल मिरा शीशा-ए-नाज़ुक है सुना ऐ वाइज़

लोट हो तू जो न मस्तों की तरह क्या मा'नी
मुँह लगा बिन्त-ए-इनब को तो ज़रा ऐ वाइज़

पारसाई तो ज़रा ज़ाहिद-ए-मक्कार की देख
रहन-ए-मय ख़िर्क़ा-सालूस हुआ ऐ वाइज़

चढ़ के मिम्बर पे न मक्कार दरोग़ इतना बोल
मुँह में बू आती है झूटे के सुना ऐ वाइज़

हर-नफ़स 'शाद' यही क़ौल है मतवालों का
हम ने सौंपा तुझे शैतान को जा ऐ वाइज़