EN اردو
बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले | शाही शायरी
bojh sa baDh jata hai dil par sham-Dhale

ग़ज़ल

बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले

मोहम्मद अहमद रम्ज़

;

बोझ सा बढ़ जाता है दिल पर शाम-ढले
रुक जाती हैं साँसें पल-भर शाम-ढले

खिल उठता है उस की याद का इक इक रंग
जाग उठते हैं क्या क्या मंज़र शाम-ढले

आग मिरे शिरयानों की लौ देने लगी
पिघला उस की अना का पत्थर शाम-ढले

गहरे होंगे सरगोशी के साए अभी
खुल जाएगा लिपटा बिस्तर शाम-ढले

किस को बताऊँ गुम है मिरी अपनी पहचान
मुझ से जुदा है मेरा पैकर शाम-ढले

इक आँधी सा घटता बढ़ता शोर-ए-नफ़स
भर जाता है ज़ेहन के अंदर शाम-ढले

दिल के इक गोशे में सिमट आते हैं 'रम्ज़'
सातों आसमाँ सातों समुंदर शाम-ढले