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बिगड़ी हुई क़िस्मत को बदलते नहीं देखा | शाही शायरी
bigDi hui qismat ko badalte nahin dekha

ग़ज़ल

बिगड़ी हुई क़िस्मत को बदलते नहीं देखा

अर्श मलसियानी

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बिगड़ी हुई क़िस्मत को बदलते नहीं देखा
आ जाए जो सर पर उसे टलते नहीं देखा

क्यूँ लोग हवा बाँधते हैं हिम्मत-ए-दिल की
हम ने तो उसे गिर के सँभलते नहीं देखा

हम जौर भी सह लेंगे मगर डर है तो ये है
ज़ालिम को कभी फूलते-फलते नहीं देखा

अहबाब की ये शान-ए-हरीफ़ाना सलामत
दुश्मन को भी यूँ ज़हर उगलते नहीं देखा

अश्कों में सुलगती हुई उम्मीद को देखो
पानी से अगर घर कोई जलते नहीं देखा

हर-दम मिरे दिल ही को जलाती रहें आहें
घर ग़ैर का लेकिन कभी जलते नहीं देखा

वो राह सुझाते हैं हमें हज़रत-ए-रहबर
जिस राह पे उन को कभी चलते नहीं देखा

उल्फ़त में अगर जान निकल जाए तो सच है
दिल से मगर अरमान निकलते नहीं देखा

क्यूँ चाहने वालों से ख़फ़ा आप हैं इतने
परवानों से यूँ शम्अ' को जलते नहीं देखा

हर एक इलाज-ए-दिल बेताब है बे-सूद
इस को तो किसी तौर बहलते नहीं देखा

ऐ 'अर्श' गुनह भी हैं तिरे दाद के क़ाबिल
तुझ को कफ़-ए-अफ़्सोस भी मलते नहीं देखा