भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
मेरे अंदर कोई फ़रियाद बहुत करता है
रोज़ आता है जगाता है डराता है मुझे
तंग मुझ को मिरा हम-ज़ाद बहुत करता है
मुझ से कहता है कि कुछ अपनी ख़बर ले बाबा
देख तू वक़्त को बर्बाद बहुत करता है
निकली जाती है मिरे पाँव के नीचे से ज़मीं
आसमाँ भी सितम ईजाद बहुत करता है
कुछ तो हम सब्र ओ रज़ा भूल गए हैं शायद
और कुछ ज़ुल्म भी सय्याद बहुत करता है
उस के जैसा तो कोई चाहने वाला ही नहीं
कर के पाबंद जो आज़ाद बहुत करता है
बस्तियों में वो कभी ख़ाक उड़ा देता है
कभी सहराओं को आबाद बहुत करता है
ग़म के रिश्तों को कभी तोड़ न देना 'वाली'
ग़म ख़याल-ए-दिल-ए-ना-शाद बहुत करता है
ग़ज़ल
भूले-बिसरे हुए ग़म याद बहुत करता है
वाली आसी