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भूल जाते हैं तक़द्दुस के हसीं पल कितने | शाही शायरी
bhul jate hain taqaddus ke hasin pal kitne

ग़ज़ल

भूल जाते हैं तक़द्दुस के हसीं पल कितने

रफ़ीआ शबनम आबिदी

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भूल जाते हैं तक़द्दुस के हसीं पल कितने
लोग जज़्बात में हो जाते हैं पागल कितने

रोज़ ख़ुश्बू के मुक़द्दर में रही ख़ुद-सोज़ी
अपनी ही आग में जलते रहे संदल कितने

सब्ज़ मौसम न यहाँ फिर से पलट कर आया
हो गए ज़र्द मिरे गाँव के पीपल कितने

ख़ुद-कुशी क़त्ल-ए-अना तर्क-ए-तमन्ना बैराग
ज़िंदगी तेरे नज़र आने लगे हल कितने

बारिशें होती हैं जिस वक़्त भरी आँखों की
राख हो जाते हैं जलते हुए आँचल कितने

हर क़दम कोई दरिंदा कोई खूँ-ख़्वार उक़ाब
शहर की गोद में आबाद हैं जंगल कितने

बे-रुख़ी उस की रुलाएगी लहू क्या 'शबनम'
ज़ख़्म खाते ही रहे हम तो मुसलसल कितने