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भरें न वक़्त के हाथों जराहतें तेरी | शाही शायरी
bharen na waqt ke hathon jarahaten teri

ग़ज़ल

भरें न वक़्त के हाथों जराहतें तेरी

ख़ुर्शीद रिज़वी

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भरें न वक़्त के हाथों जराहतें तेरी
रखें सँभाल के दिल ने अमानतें तेरी

छुपा के तुझ से कहाँ अपने रोज़-ओ-शब ले जाऊँ
जहान-ए-नूर तिरा और ज़ुल्मतें तेरी

बिछड़ के तुझ से मिला उम्र-भर का सन्नाटा
बना गईं मुझे तन्हा रिफाक़तें तेरी

तू है वो फ़ातेह-ए-आलम कि एक दुनिया ने
शिकस्त खा के सराही ही हिम्मतें तेरी

तिरे नुक़ूश-ए-क़दम से बहार थी इन की
हैं मुंतज़िर मिरे दिल की मसाफ़तें तेरी

कहाँ है शाम-ए-तमन्ना मलाहतों का वो रंग
कहाँ हैं सुब्ह-ए-तसव्वुर सबाहतें तेरी

दिल-ए-हज़ीं तिरी चौखट पे उम्र कौन गँवाए
कभी समझ में न आईं ज़रूरतें तेरी

अज़ल से शीशा-ए-गर्दूँ में रेत चलती है
कभी शुमार में आईं न साअ'तें तेरी

तू मेरी शिरकत-ए-हस्ती कहीं क़ुबूल तो कर
तमाम रंज मिरे सब मसर्रतें तेरी