भरे जहाँ में कोई राज़दार भी न मिला
क़रार ढूँडने निकले क़रार भी न मिला
ये मेरी सोख़्ता-बख़्ती नहीं तो फिर क्या है
वो फूल लाए तो मेरा मज़ार भी न मिला
न जाने कैसी करामत थी दस्त-ए-साक़ी में
ब-क़ैद-ए-होश कोई होशियार भी न मिला
चमन चमन में उदासी का बोल-बाला है
बहार कैसी निशान-ए-बहार भी न मिला
बहुत थे ऐश के लम्हों में जाँ-निसार अपने
पड़ा जो वक़्त कोई ग़म-गुसार भी न मिला
मैं अपने गाँव में रह कर भी अजनबी ही रहा
मुझे तो अपनों से थोड़ा सा प्यार भी न मिला
ख़राब ही रही क़िस्मत ख़िज़ाँ-नसीबों की
बहार आई तो लुत्फ़-ए-बहार भी न मिला
हँसी तो अपना मुक़द्दर न थी मगर 'कौसर'
हमें तो रोने पे कुछ इख़्तियार भी न मिला

ग़ज़ल
भरे जहाँ में कोई राज़दार भी न मिला
महेर चंद काैसर