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बेताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम | शाही शायरी
betab rahen hijr mein kuchh dil to nahin hum

ग़ज़ल

बेताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम

बेख़ुद देहलवी

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बेताब रहें हिज्र में कुछ दिल तो नहीं हम
तड़पें जो तुझे देख के बिस्मिल तो नहीं हम

हैं याद बहुत मक्र ओ फ़रेब ऐसे हमें भी
मुट्ठी में जो आ जाएँ तिरी दिल तो नहीं हम

अब आप कोई काम सिखा दीजिए हम को
मालूम हुआ इश्क़ के क़ाबिल तो नहीं हम

कहने को वफ़ादार तुम्हें लाख में कह दें
दिल से मगर इस बात के क़ाइल तो नहीं हम

क्यूँ ख़िज़्र के पैरव हों तिरी राह-ए-तलब में
आवारा ओ गुम-कर्दा-ए-मंज़िल तो नहीं हम

कहते हैं तमन्ना-ए-शहादत को वो सुन कर
क्यूँ क़त्ल करें आप को क़ातिल तो नहीं हम

हैं दिल में अगर तालिब-ए-दीदार तुम्हें क्या
कुछ तुम से किसी बात के साइल तो नहीं हम

वो पूछते हैं मुझ से ये मज़मूँ तो नया है
तेरी ही तरह से कहीं बे-दिल तो नहीं हम

हम जाते हैं या हज़रत-ए-दिल आप सिधारें
जाएँगे अब उस बज़्म में शामिल तो नहीं हम

इन आँखों से हम ने भी तो देखा है ज़माना
हम से न कहो ग़ैर पे माइल तो नहीं हम

मरने के लिए वक़्त कोई ताक रहे हैं
इस काम को समझे अभी मुश्किल तो नहीं हम

कहते हैं तुझे देख के आता है हमें रश्क
बैठे हुए दुश्मन के मुक़ाबिल तो नहीं हम

हर साँस में रहता है तिरी याद का खटका
'बेख़ुद' हैं तो हों काम से ग़ाफ़िल तो नहीं हम