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बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की | शाही शायरी
bekar gai aaD tere parda-e-dar ki

ग़ज़ल

बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की

शकील बदायुनी

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बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की
अल्लाह-रे वुसअ'त मिरे आग़ोश-ए-नज़र की

पी शौक़ से वाइ'ज़ अरे क्या बात है डर की
दोज़ख़ तिरे क़ब्ज़े में है जन्नत तिरे घर की

ईमान की दौलत से तिरे हुस्न का सौदा
ईमान की दौलत है तिरी एक नज़र की

आ जाए तसव्वुर में कोई हश्र-ब-दामाँ
फिर मेरी शब-ए-ग़म को ज़रूरत है सहर की

वो सामने हैं फिर भी उन्हें ढूँढ रहा हूँ
आख़िर कोई हद भी है हिजाबात-ए-नज़र की

तन्हाई-ए-फ़ुर्क़त में जो आलम है इधर का
हंगामा-ए-महफ़िल में वो हालत है उधर की

कुछ सहल न पाए हैं मोहब्बत के मरातिब
छानी है बहुत ख़ाक तिरी राह-गुज़र की