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बे-ज़मीरों के कभी झाँसे में मैं आता नहीं | शाही शायरी
be-zamiron ke kabhi jhanse mein main aata nahin

ग़ज़ल

बे-ज़मीरों के कभी झाँसे में मैं आता नहीं

इबरत बहराईची

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बे-ज़मीरों के कभी झाँसे में मैं आता नहीं
मुश्किलों की भीड़ से हरगिज़ मैं घबराता नहीं

मुझ से अब अपनी ज़बाँ से कुछ कहा जाता नहीं
जुर्म कर के भी कोई मुजरिम सज़ा पाता नहीं

मेरी ख़ुद्दारी सदा करती है मेरी रहबरी
मैं कभी पत्थर से अपने सर को टकराता नहीं

हक़-शनासी मेरा मस्लक हक़-परस्ती मेरा काम
मैं खिलौनों से कभी दिल अपना बहलाता नहीं

पेड़ जो देता है साया धूप में रहता है वो
रौशनी देता है जो वो रौशनी पाता नहीं

आदमी के पास ख़ुद ज़ाती मसाइल हैं बहुत
दूसरों के अब मसाइल कोई सुलझाता नहीं

आरज़ूओं के चराग़ों को बुझा बैठा हूँ मैं
कोई इंसाँ आ के मेरे दिल को बहलाता नहीं