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बे-वज्ह नहीं गर्द परेशाँ पस-ए-महमिल | शाही शायरी
be-wajh nahin gard pareshan pas-e-mahmil

ग़ज़ल

बे-वज्ह नहीं गर्द परेशाँ पस-ए-महमिल

मिर्ज़ा मोहम्मद तक़ी हवस

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बे-वज्ह नहीं गर्द परेशाँ पस-ए-महमिल
आता है कोई बे-सर-ओ-सामाँ पस-ए-महमिल

अज़-बस कशिश-ए-इश्क़ से आगाह थी लैला
थी देखती वो फ़ित्ना-ए-दौराँ पस-ए-महमिल

किस सोख़्ता की ख़ाक से उट्ठा है बगूला
इक शोला-ए-जव्वाला है पेचाँ पस-ए-महमिल

फ़िक्र-ए-क़दम-ए-नाक़ा हुआ क़ैस को पैदा
देखा जो हैं सहरा-ए-मुग़ीलाँ पस-ए-महमिल

ऐ नाक़ा-कश इतनी भी न तू तेज़-रवी कर
मजनूँ ज़ि-ख़ुद-ओ-रफ़्ता है नालाँ पस-ए-महमिल

शायद मैं उसे देखूँ 'हवस' बा-लब-ए-ख़ंदाँ
जाता हूँ इस उम्मीद पे गिर्यां पस-ए-महमिल