बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
अब आठ आठ आँसू रोते हैं क्यूँ दिल का कहना मान लिया
हम फ़िक्र में थे छुप कर देखें उन जल्वों ने पहचान लिया
जब तक ये नज़र उट्ठे उट्ठे ज़ालिम ने पर्दा तान लिया
क्यूँ हुस्न-ए-गराँ-माया ये क्या तेरे जल्वे इतने अर्ज़ां
एक एक ख़ुदा अपना अपना जिस ने जिसे चाहा मान लिया
जिस पर सदक़े दोनों आलम उस अश्क की क़ीमत क्या कहिए
पलकों पर अपनी तोल चुके दामन में किसी के छान लिया
ये कोह-ए-गिराँ हिलते हैं कहीं और फिर मज़बूत इरादों के
पत्थर की लकीर है ऐ नासेह जो हम ने दिल में ठान लिया
जल्वा कि फ़रेब-ए-जल्वा था जो हो तस्वीर मुकम्मल थी
इक शोर उठा हर जानिब से पहचान लिया पहचान लिया
मुझ से तो किसी से बैर न था दुनिया मिरे ख़ून की प्यासी है
मक़्तल की तरफ़ से जो गुज़रा इक हाथ लहू में सान लिया
होंटों पे बनावट की वो हँसी फ़रियाद का आलम साँसों में
ज़ालिम की मोहब्बत छुप न सकी जिस ने देखा पहचान लिया
बरसों उलझे अरबाब-ए-ख़िरद ये एक गिरह अब तक न खुली
सर आप ही झुक गए सज्दे में घबरा के ख़ुदा को मान लिया
मरना हो 'सिराज' कि जीना हो बे-मिन्नत-ए-ग़ैर हो जो कुछ हो
क्या रह गई ख़ंजर-ए-क़ातिल का गर्दन पे अगर एहसान लिया
ग़ज़ल
बे-समझे-बूझे मोहब्बत की इक काफ़िर ने ईमान लिया
सिराज लखनवी