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बे-सबब हाथ कटारी को लगाना क्या था | शाही शायरी
be-sabab hath kaTari ko lagana kya tha

ग़ज़ल

बे-सबब हाथ कटारी को लगाना क्या था

शाह नसीर

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बे-सबब हाथ कटारी को लगाना क्या था
क़त्ल-ए-उश्शाक़ पे बेड़ा ये उठाना क्या था

सर पे अपने तू न ले ख़ून अब इक आलम का
फ़ुंदुक़-हा-ए-निगारीं को दिखाना क्या था

सर-बुलंदी को यहाँ दिल ने न चाहा मुनइम
वर्ना ये ख़ेमा-ए-अफ़्लाक पुराना क्या था

इस लिए चीन-ए-जबीं मौज रहे है हर दम
ऐ हुबाब-ए-लब-ए-जू आँख चुराना क्या था

साक़िया अपनी बला से जो घटा उट्ठी है
दे के इक जुरआ-ए-मय दिल को घटाना क्या था

सरज़मीं ज़ुल्फ़ की जागीर में थी इस दिल की
वर्ना इक दाम का फिर इस में ठिकाना क्या था

कह ग़ज़ल दूसरी इस बहर में एक और 'नसीर'
यक क़लम लिखने से अब हाथ उठाना क्या था