बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है
जाने क्या बात है हर बात से डर लगता है
साग़र-ए-बादा-ए-गुल-रंग तो कुछ दूर नहीं
निगह-ए-पीर-ए-ख़राबात से डर लगता है
दिल पे खाई हुई इक चोट उभर आती है
तेरे दीवाने को बरसात से डर लगता है
ऐ दिल अफ़साना-ए-आग़ाज़-ए-वफ़ा रहने दे
मुझ को बीते हुए लम्हात से डर लगता है
हाथ से ज़ब्त का दामन न कहीं छुट जाए
आप की पुर्सिश-ए-हालात से डर लगता है
मैं जो उस बज़्म में जाता नहीं 'अशअर' मुझ को
अपने सहमे हुए जज़्बात से डर लगता है
ग़ज़ल
बे-नियाज़ी से मुदारात से डर लगता है
हबीब अशअर देहलवी