बे-नश्शा बहक रहा हूँ कब से
दोज़ख़ हूँ दहक रहा हूँ कब से
पत्थर हुए कान मौत के भी
सूली पे लटक रहा हूँ कब से
झड़ती नहीं गर्द आगही की
दामन को झटक रहा हूँ कब से
लाहौर के खंडरों में यारब
बुलबुल सा चहक रहा हूँ कब से
रौशन न हुईं ग़ज़ल की शमएँ
शो'ला सा भड़क रहा हूँ कब से
तारीक हैं रास्ते वफ़ा के
सूरज सा चमक रहा हूँ कब से
टूटा न फ़सुर्दगी का जादू
ग़ुंचा सा चटक रहा हूँ कब से
जलता नहीं बे-कसी का ख़िर्मन
बिजली सा लपक रहा हूँ कब से
इस हिर्स-ओ-हवा की तीरगी में
सोना सा दमक रहा हूँ कब से
सुनसान है वादी-ए-तकल्लुम
बादल सा कड़क रहा हूँ कब से
बस्ती कोई हो तो मिल भी जाए
सहरा में भटक रहा हूँ कब से
गुलचीं कोई हो तो क़द्र जाने
जंगल में महक रहा हूँ कब से
हाँ ऐ ग़म-ए-इश्क़ मुझ को पहचान
दिल बन के धड़क रहा हूँ कब से
पैमाना-ए-उम्र की तरह से
हर लम्हा छलक रहा हूँ कब से
मालूम ये अब हुआ कि 'शोहरत'
दीवाना हूँ बक रहा हूँ कब से
ग़ज़ल
बे-नश्शा बहक रहा हूँ कब से
शोहरत बुख़ारी