बे-दिली वो है कि मरने की तमन्ना भी नहीं 
और जी लें किसी उम्मीद पे ऐसा भी नहीं 
न कोई सर को है सौदा न कोई संग से लाग 
कोई पूछे तो कुछ ऐसा ग़म-ए-दुनिया भी नहीं 
वक़्त वो है कि जबीं ले के करो दर की तलाश 
अजब आशुफ़्ता-सरी है कि तमाशा भी नहीं 
अपने आईने में ख़ुद अपनी ही सूरत हुई मस्ख़ 
मगर इस टूटे हुए दिल का मुदावा भी नहीं 
हू का आलम है कोई नारा-ए-मस्ताना-ए-हक़ 
क्या तिरी बज़्म-ए-वफ़ा में कोई इतना भी नहीं 
लफ़्ज़-ओ-मा'नी में नहीं रब्त मगर हाए उमीद 
इस पे बैठे हैं कि वो टालने वाला भी नहीं 
बे-ख़ुदी हाए तमन्ना की न थी फ़ुर्सत-ए-वहम 
बे-कसी हाए तमाशा कि कोई था भी नहीं 
फूल बन कर जो महकता था कभी दिल के क़रीब 
ख़ार बन कर कभी पहलू में खटकता भी नहीं 
तुम भी कहलाते हो दामन-कश-ए-दुनिया 'बाक़र' 
सच तो ये है तुम्हें जीने का सलीक़ा भी नहीं
        ग़ज़ल
बे-दिली वो है कि मरने की तमन्ना भी नहीं
सज्जाद बाक़र रिज़वी

