बे-चेहरगी-ए-ग़म से परेशान खड़े हैं
हम फिर भी वो ज़ालिम हैं कि जीने पर अड़े हैं
ग़म से जो बुलंद और मसर्रत से बड़े हैं
ऐसे भी कई दाग़ मिरे दिल पे पड़े हैं
तारीख़ के सफ़्हों पे जो इंसान बड़े हैं
उन में बहुत ऐसे हैं जो लाशों पे खड़े हैं
क्या क्या न हमें घर की उदासी से गिला था
अब शहर से निकले हैं तो हैरान खड़े हैं
आई न शिकन मेरी जबीं पर रह-ए-ग़म में
कुछ आबले पड़ने थे सो तलवों में पड़े हैं
यादों के घने शहर में क्यूँकर कोई निकले
हर फ़र्द के पीछे कई अफ़राद खड़े हैं
रोना तो ये है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर की सूरत
हालात के पैरों में हमीं लोग पड़े हैं
सूरज जो चढ़ेगा तो सिमट जाएँगे ये लोग
साए की तरह क़द से जो दो हाथ बड़े हैं
हम पर जो गुज़रती है उसे किस को बताएँ
तन्हाई की आग़ोश में सदियों से पड़े हैं
हालात के पथराव से बच निकलें तो जानो
शीशे की तरह हम भी फ़्रेमों में जड़े हैं
इस दौर-ए-ख़िरद का ये अलमिय्या है कि इंसान
आप अपनी ही लाशें लिए काँधों पे खड़े हैं
सदियाँ हैं कि गुज़री ही चली जाती हैं 'नाज़िश'
हैं रोज़-ओ-मह-ओ-साल कि चुप-चाप खड़े हैं
ग़ज़ल
बे-चेहरगी-ए-ग़म से परेशान खड़े हैं
नाज़िश प्रतापगढ़ी