बज़्म में वो सरफ़राज़ी की अलामत ले गए
जब गए तो साथ मेरा क़द्द-ओ-क़ामत ले गए
ये ग़नीमत है कि उस कू-ए-दिल-आज़ारी से हम
बारिश-ए-संग-ए-सितम में सर सलामत ले गए
पेश करने को न था कुछ भी तही-दस्तों के पास
शहर-ए-बे-तौक़ीर से ज़ाद-ए-नदामत ले गए
कोई भी आसार जिस के अपने चेहरे पर न थे
हम छुपा कर धड़कनों में वो क़यामत ले गए
साया-ए-अम्न-ओ-अमाँ में आश्ना सोते रहे
हम तन-ए-तन्हा ये अम्बार-ए-मलामत ले गए
अंजुमन में उस की 'मोहसिन' चंद बौने जम्अ थे
तुम वहाँ किस ज़ोम में ये क़द्द-ओ-क़ामत ले गए
ग़ज़ल
बज़्म में वो सरफ़राज़ी की अलामत ले गए
मोहसिन एहसान