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बज़्म-ए-इंसाँ में भी इक रात बसर कर देखो | शाही शायरी
bazm-e-insan mein bhi ek raat basar kar dekho

ग़ज़ल

बज़्म-ए-इंसाँ में भी इक रात बसर कर देखो

अहमद नदीम क़ासमी

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बज़्म-ए-इंसाँ में भी इक रात बसर कर देखो
एक बार अपनी ज़मीं पर भी उतर कर देखो

इस उफ़ुक़ पर न अगर जन्नत-ए-मौऊदा मिली
इस उफ़ुक़ तक भी जो चाहो तो सफ़र कर देखो

कोई डूबी हुई कश्ती है कि साहिल का निशाँ
अपनी सोचों के समुंदर से उभर कर देखो

ख़ुद को देखो मिरे मेआ'र के आईने में
इक ज़रा मुझ पे ये एहसान भी धर कर देखो

मौसम-ए-गुल है तो किरदार-ए-चमन क्यूँ बदले
आग फूलों को तो शबनम को शरर कर देखो

हर ज़माने में बुझे तो नहीं रहते ख़ुर्शेद
गर्दिशो आज मिरी शब को सहर कर देखो