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बयान-ए-शौक़ को मफ़्हूम से जुदा न करे | शाही शायरी
bayan-e-shauq ko mafhum se juda na kare

ग़ज़ल

बयान-ए-शौक़ को मफ़्हूम से जुदा न करे

मतरब निज़ामी

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बयान-ए-शौक़ को मफ़्हूम से जुदा न करे
सदा वही है जो लफ़्ज़ों को बे-सदा न करे

किरन किरन ने सँभल कर ये हम को दर्स दिया
मिसाल-ए-अश्क कोई आँख से गिरा न करे

हवा के झोंकों से ख़ुशबू के पर्दे हिलते हैं
हरीम-ए-लाला-ओ-गुल में कोई छुपा न करे

हमारी आँखें शब-ओ-रोज़ जैसे जलती हैं
कोई चराग़ जले भी तो यूँ जला न करे

हमें चराग़ भी हैं और हमें हवा भी हैं
हमारी ज़ीस्त पे अब कोई तब्सिरा न करे

बढ़ेगी और भी कुछ फ़ासलों की तन्हाई
जो तेज़-गाम है वो राह में रुका न करे

तिरे ख़याल तिरी याद में जो गुज़रा है
कभी वो लम्हा किसी जा पे आशियाना करे

सदा-ए-ग़म से लरज़ती है ज़िंदगी 'मुतरिब'
लचकती शाख़ से भी फूल अब गिरा न करे