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बस्ती से चंद रोज़ किनारा करूँगा मैं | शाही शायरी
basti se chand roz kinara karunga main

ग़ज़ल

बस्ती से चंद रोज़ किनारा करूँगा मैं

अहमद ख़याल

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बस्ती से चंद रोज़ किनारा करूँगा मैं
वहशत को जा के दश्त में मारा करूँगा मैं

वैसे तो ये ज़मीन मिरे काम की नहीं
लेकिन अब इस के साथ गुज़ारा करूँगा मैं

शायद कि इस से मुर्दा समुंदर में जान आए
सहरा में कश्तियों को उतारा करूँगा मैं

मंज़र का रंग रंग निगाहों में आएगा
इक ऐसे ज़ाविए से नज़ारा करूँगा मैं

ऐ मेहरबाँ अजल मुझे कुछ वक़्त चाहिए
जब जी भरा तो तुम को इशारा करूँगा मैं