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बसीत-ए-दश्त की हुर्मत को बाम-ओ-दर दे दे | शाही शायरी
basit-e-dasht ki hurmat ko baam-o-dar de de

ग़ज़ल

बसीत-ए-दश्त की हुर्मत को बाम-ओ-दर दे दे

अशरफ़ जावेद

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बसीत-ए-दश्त की हुर्मत को बाम-ओ-दर दे दे
मिरे ख़ुदाया मुझे भी तो एक घर दे दे

बशारतों के सहीफ़े उतार आँखों पर
तिलिस्म-ए-शब के कलस तोड़ कर सहर दे दे

मैं तेरा नाम लिखूँगा रिदा-ए-काबा पर
क़लम नसीब है, अल्फ़ाज़ मो'तबर दे दे

रुके हुए हैं खुले पानियों पे बरसों से
हवाएँ खोल दे और ताक़त-ए-सफ़र दे दे

हर एक शख़्स कि पत्थर उठाए फिरता है
इक आइना ही मिरे शहर को अगर दे दे

बिखर गया हूँ बिछड़ के ख़लाओं में 'अशरफ़'
अब आए, वो मुझे मुझ को समेट कर दे दे