बशारत हो कि अब मुझ सा कोई पागल न आएगा
ये दौर-ए-आख़िर-ए-दीवानगी है बीत जाएगा
किसी की ज़िंदगी ज़ाएअ' न होगी अब मोहब्बत में
कोई धोका न देगा अब कोई धोका न खाएगा
न अब उतरेगा क़ुदसी कोई इंसानों की बस्ती पर
न अब जंगल में चरवाहा कोई भेड़ें चराएगा
गिरोह-ए-इब्न-ए-आदम लाख भटके लाख सर पटके
अब इस अंदर से कोई रास्ता बाहर न जाएगा
बशर को देख कर बे-इंतिहा अफ़्सोस आता है
न मा'लूम इस ख़राबाती को किस दिन होश आएगा
मिटा भी दे मुझे अब ऐ मुसव्विर! ता-ब-कै आख़िर
बनाएगा बिगाड़ेगा बिगाड़ेगा बनाएगा
मोहब्बत भी कहीं ऐ दोस्त! तरदीदों से छुपती है
किसे क़ाएल करेगा तू किसे बावर कराएगा
ग़नीमत जान अगर दो बोल भी कानों में पड़ जाएँ
कि फिर ये बोलने वाला न रोएगा न गाएगा
'शुऊर' आख़िर उसे हम से ज़ियादा जानते हो तुम?
बहुत सीधा सही लेकिन तुम्हें तो बेच खाएगा
ग़ज़ल
बशारत हो कि अब मुझ सा कोई पागल न आएगा
अनवर शऊर