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बस इक शुआ-ए-नूर से साया सिमट गया | शाही शायरी
bas ek shua-e-nur se saya simaT gaya

ग़ज़ल

बस इक शुआ-ए-नूर से साया सिमट गया

शकेब जलाली

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बस इक शुआ-ए-नूर से साया सिमट गया
वो पास आ रहा था कि मैं दूर हट गया

फिर दरमियान-ए-अक़्ल-ओ-जुनूँ जंग छिड़ गई
फिर मजमा-ए-ख़वास गिरोहों में बट गया

क्या अब भी तेरी ख़ातिर-ए-नाज़ुक पे बार हूँ
पत्थर नहीं कि मैं तिरे रस्ते से हट गया

या इतना सख़्त-जान कि तलवार बे-असर
या इतना नर्म-दिल कि रग-ए-गुल से कट गया

वो लम्हा-ए-शुऊर जिसे जाँ-कनी कहें
चेहरे से ज़िंदगी की नक़ाबें उलट गया

अब कौन जाए कू-ए-मलामत से लौट कर
क़दमों से आ के अपना ही साया लिपट गया

आख़िर 'शकेब' ख़ू-ए-सितम उस ने छोड़ दी
ज़ौक़-ए-सफ़र को देख के सहरा सिमट गया