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बस एक वहम सताता है बार बार मुझे | शाही शायरी
bas ek wahm satata hai bar bar mujhe

ग़ज़ल

बस एक वहम सताता है बार बार मुझे

शमीम हनफ़ी

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बस एक वहम सताता है बार बार मुझे
दिखाई देता है पत्थर के आर-पार मुझे

मिरा ख़ुदा है तो मुझ में उतार दे मुझ को
कि एक उम्र से अपना है इंतिज़ार मुझे

मैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ बिखरता रहा फ़ज़ाओं में
मिरी सदा से वो करता रहा शिकार मुझे

जो ढाल देते हैं परछाइयों को पत्थर में
अब ऐसे सख़्त-दिलों में न कर शुमार मुझे

हवा कुछ ऐसी चली ख़ून को निशाँ न मिला
ग़ुबार-ए-राह को तकता हूँ मैं ग़ुबार मुझे

हिसार-ए-मर्ग में घुट जाएगी सदा तेरी
तू दूर है तो ज़रा देर तक पुकार मुझे