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बस एक हिज्र के मौसम का रंग गहरा था | शाही शायरी
bas ek hijr ke mausam ka rang gahra tha

ग़ज़ल

बस एक हिज्र के मौसम का रंग गहरा था

क़य्यूम ताहिर

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बस एक हिज्र के मौसम का रंग गहरा था
हर एक रुत को चखा था बरत के देखा था

उस एक लम्हे में कितनी क़यामतें टूटीं
बस एक लम्हे को तेरे असर से निकला था

कोई चराग़ भी रख़्त-ए-सफ़र में रख लेते
सफ़र में रात भी आएगी ये न सोचा था

ख़ुद अपने-आप को छूने का हौसला न रहा
कि मेरे जिस्म पे मेरा ही ख़ून फैला था

वो आज मुझ से मिला है तो कितना बंजर है
जो अपनी आँख में सावन के रंग रखता था

न उस की छाँव थी मेरी न फूल थे मेरे
शजर था सेहन में अपने मगर पराया था

वो साहिलों पे पड़ा अब ख़ला को तकता है
जो पानियों में उतरता था सीप चुनता था

अटा है धूल से कमरा है ताक़ भी सूना
कभी गुलाब सजे थे चराग़ जलता था