बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
हँसा था जिस क़दर कभी ज़ियादा उस से रो चुका
न ज़िक्र-ए-इम्बिसात कर कि दौर-ए-ऐश हो चुका
ख़ुशी की फ़िक्र किस लिए वो दिल कहाँ जो खो चुका
ये ख़ंदा-ए-तरब-नुमा मुबारक अहल-ए-दहर को
बहुत ज़माना हो गया कि मैं हँसी को रो चुका
वफ़ा जो ज़िंदगी में थी वही है बाद-ए-मर्ग भी
ये इम्तिहान रह गया वो इम्तिहान हो चुका
न दम ले ऐ सरिश्क-ए-ग़म तुझे क़सम है इश्क़ की
फ़लक को छोड़ता है क्यूँ अगर मुझे डुबो चुका
रहे वो दिल में मुद्दतों मगर सँभल सका न मैं
मिज़ाज-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ को बहुत दिनों समो चुका
ये आशियाना-ए-सितम चमन में हो तो ख़ूब है
ये जी में है कि ले उड़ूँ क़फ़स तू मेरा हो चुका
ख़बर नहीं ये जागना है ज़ीस्त तक कि बाद भी
जो साथ दिल रहा यही तो मैं लहद में सो चुका
निकल के राह-ए-इश्क़ से किसी तरफ़ चलूँ तो क्या
कहाँ से लाऊँ जान ओ दिल ये दे चुका वो खो चुका
ये तू नहीं कि वादा-ए-वफ़ा को रौंदता फिरे
ये मैं हूँ सरफ़रोश-ए-दिल जो कह दिया वो हो चुका
ये 'साक़िब' एक सिल्क है ख़ज़ाना-हा-ए-राज़ की
गुहर वो शाहवार हैं जिन्हें मैं यूँ पिरो चुका
ग़ज़ल
बस ऐ फ़लक नशात-ए-दिल का इंतिक़ाम हो चुका
साक़िब लखनवी