EN اردو
बर्क़ ने जब भी आँख खोली है | शाही शायरी
barq ne jab bhi aankh kholi hai

ग़ज़ल

बर्क़ ने जब भी आँख खोली है

इब्न-ए-मुफ़्ती

;

बर्क़ ने जब भी आँख खोली है
आशियानों ने ख़ाक रोली है

याद का क्या है आ गई फिर से
आँख का क्या है फिर से रो ली है

तुम बिछा लो मुसल्ला-ए-चाहत
मैं ने दहलीज़ दिल की धो ली है

दिल की बातों को दिल समझता है
दिल की बोली अजीब बोली है

पर्दा उठते ही मेरी नज़रों से
काएनात-ए-यक़ीन डोली है

मुस्कुराए न चाँद क्यूँ 'मुफ़्ती'
आई जो चाँदनी की डोली है