बराए नाम सही हासिल-ए-तलब ठहरा
वो एक लम्हा जो सरमाया-ए-तरब ठहरा
खुले सरों पे घनी छाँव ले के आया था
हमारे पास वो अब्र-ए-रवाँ भी कब ठहरा
नक़ीब-ए-अम्न रहा मैं महाज़-ए-जंग पे भी
यही उसूल मिरी फ़तह का सबब ठहरा
किया था जिस को कभी तेरे नाम से मंसूब
वही सहीफ़ा तो सरमाया-ए-अदब ठहरा
वही मिरे लिए वज्ह-ए-नशात-ए-रूह था 'नाज़'
वो इक तबस्सुम-ए-रंगीं जो ज़ेर-ए-लब ठहरा
ग़ज़ल
बराए नाम सही हासिल-ए-तलब ठहरा
नाज़ क़ादरी