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बर-सर-ए-दर्द ज़माने का भी सोचा जाए | शाही शायरी
bar-sar-e-dard zamane ka bhi socha jae

ग़ज़ल

बर-सर-ए-दर्द ज़माने का भी सोचा जाए

साइम जी

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बर-सर-ए-दर्द ज़माने का भी सोचा जाए
फिर नया क़र्ज़ उठाने का भी सोचा जाए

सामने चाँद है पर और कोई चारा नहीं
चश्म-ए-नमनाक चुराने का भी सोचा जाए

हिद्दत-ए-हुस्न-ए-नज़र से भी बचा कर ख़ुद को
इश्क़ में रिस्क उठाने का भी सोचा जाए

ख़्वाब से लिपटी हुए याद के सादा लम्हो
दर्द के हाथ न आने का भी सोचा जाए

इश्क़ तो यार अदाओं को निगल जाता है
हुस्न-ए-बेबाक बचाने का भी सोचा जाए

सिगरटें फूँक के कुछ जाम चढ़ा कर जानाँ
कुछ तिरा हिज्र मनाने का भी सोचा जाए