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बर-सर-ए-बाद हुआ अपना ठिकाना सर-ए-राह | शाही शायरी
bar-sar-e-baad hua apna Thikana sar-e-rah

ग़ज़ल

बर-सर-ए-बाद हुआ अपना ठिकाना सर-ए-राह

अली इफ़्तिख़ार ज़ाफ़री

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बर-सर-ए-बाद हुआ अपना ठिकाना सर-ए-राह
काम आया मिरा आवाज़ लगाना सर-ए-राह

दोस्तो फ़र्त-ए-जुनूँ राह बदलता है मिरी
किस ने चाहा था तुम्हें छोड़ के जाना सर-ए-राह

दिल मुलाक़ात का ख़्वाहाँ हो तो ख़ाक उड़ती है
बच के चलता हूँ तो मिलता है ज़माना सर-ए-राह

ये जो मिट्टी तन-ए-बाक़ी की लिए फिरता हूँ
छोड़ जाऊँगा कहीं ये भी ख़ज़ाना सर-ए-राह

तुम किसी संग पे अब सर को टिका कर सो जाओ
कौन सुनता है शब-ए-ग़म का फ़साना सर-ए-राह

रह-ए-दुनिया में ठहरना तो नहीं था दिल को
मिल गया होगा कोई ख़्वाब पुराना सर-ए-राह