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बनती है सँवरती है बिखर जाती है दुनिया | शाही शायरी
banti hai sanwarti hai bikhar jati hai duniya

ग़ज़ल

बनती है सँवरती है बिखर जाती है दुनिया

इफ़्तिख़ार बुख़ारी

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बनती है सँवरती है बिखर जाती है दुनिया
उड़ती हुई मिट्टी सी गुज़र जाती है दुनिया

होते हैं सभी ख़ौफ़-ज़दा चाँद-गहन से
ख़ुद अपने ही साए से भी डर जाती है दुनिया

आवाज़ कोई देता है सदियों के सफ़र से
इक पल के लिए जैसे ठहर जाती है दुनिया

शायद यही उम्रों की मशक़्क़त का समर है
बाहोँ में थकन बन के उतर जाती है दुनिया

आती है कोई याद कभी चाँद पहन कर
आँखों में किसी शाम निखर जाती है दुनिया