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बंद-ए-ग़म मुश्किल से मुश्किल-तर खुला | शाही शायरी
band-e-gham mushkil se mushkil-tar khula

ग़ज़ल

बंद-ए-ग़म मुश्किल से मुश्किल-तर खुला

ताबिश देहलवी

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बंद-ए-ग़म मुश्किल से मुश्किल-तर खुला
हम से जब कोई परी-पैकर खुला

मिल गई वहशी को सौदा से नजात
दर खुला दीवार में या सर खुला

जाँ-सितानी के नए अंदाज़ हैं
हाथ में ग़म्ज़े के है ख़ंजर खुला

मेरी वहशत ने निकाले जब से पाँव
एक सहरा सहन के अंदर खुला

देखने में वो निगाह-ए-लुत्फ़ थी
किस से पूछें ज़ख़्म-ए-दिल क्यूँकर खुला

कोई जादा है न मंज़िल है कोई
सब फ़रेब-ए-राही-ओ-रहबर खुला

है क़यामत उस की मिज़्गाँ का ख़याल
रख दिया है दिल में इक नश्तर खुला

ये ज़ुलेख़ाई! कि यूसुफ़ के लिए
मिस्र का बाज़ार है घर घर खुला

नौ-उमीदी से बंधी 'ताबिश' उमीद
अब्र-ए-ग़म दिल पर बहुत घिर कर खुला