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बन-सँवर कर हो जो वो जल्वा-नुमा कोठे पर | शाही शायरी
ban-sanwar kar ho jo wo jalwa-numa koThe par

ग़ज़ल

बन-सँवर कर हो जो वो जल्वा-नुमा कोठे पर

दत्तात्रिया कैफ़ी

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बन-सँवर कर हो जो वो जल्वा-नुमा कोठे पर
चर्ख़-ए-चारुम का नज़र आए समा कोठे पर

तश्त-अज़-बाम न करना कहीं राज़-ए-उल्फ़त
न इशारे करो ऐ शोख़-अदा कोठे पर

डोरे डालें न कहीं यार उड़ाने वाले
बे-तकल्लुफ़ न यूँ कन्कव्वे उड़ा कोठे पर

सब को महताब का धोका हुआ महताबी पर
कल सर-ए-शाम वो मह-रू जो चढ़ा कोठे पर

वो कहा करते हैं कोठों चढ़ी होंटों निकली
दिल में ही रखना जो कल रात हुआ कोठे पर

चाँदनी हो बिछी और चाँद ने हो खेत किया
और पहलू में हो वो मह-लक़ा कोठे पर

आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम अब तो हुए हैं 'कैफ़ी'
आँखें फिर उस से लड़ाएँ भला क्या कोठे पर