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बला-कश-ए-ग़म-ए-गेती है जान-ए-ज़ार अभी | शाही शायरी
bala-kash-e-gham-e-geti hai jaan-e-zar abhi

ग़ज़ल

बला-कश-ए-ग़म-ए-गेती है जान-ए-ज़ार अभी

जलील शेरकोटी

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बला-कश-ए-ग़म-ए-गेती है जान-ए-ज़ार अभी
हयात सर पे उठाए हुए बार अभी

मिली कहाँ है तुझे तेरी रहगुज़ार अभी
है याँ से दूर बहुत दूर कू-ए-यार अभी

मह-ओ-नुजूम फ़सुर्दा गुल-ओ-समन गिर्यां
है काएनात मिरे ग़म में सोगवार अभी

कहूँ तो कैसे कहूँ उस को दौर-ए-अद्ल-ओ-अता
है दार-ओ-गीर अभी जब्र-ओ-इख़्तियार अभी

बलाएँ आईं सितम पर सितम हुए लेकिन
बदल सका न ज़माना मिरा शिआ'र अभी

सितारे डूब गए शमएँ बुझ गईं जल कर
खुली हुई है मगर चश्म-ए-इन्तिज़ार अभी

दयार-ए-दिल में न जाने है कब से वीरानी
व-लेक शहर-ए-निगाराँ में है बहार अभी

उठो सँवारो निखारो हयात-ए-नौ बख़्शो
उरूस-ए-दहर की आँखों में है ख़ुमार अभी

न नाम लोगे जफ़ाओं का भूल कर भी 'जलील'
नहीं हुए हो जफ़ाओं से हम-कनार अभी