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बला जाने किसी की हिज्र में इस दिल पे क्या गुज़री | शाही शायरी
bala jaane kisi ki hijr mein is dil pe kya guzri

ग़ज़ल

बला जाने किसी की हिज्र में इस दिल पे क्या गुज़री

शाग़िल क़ादरी

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बला जाने किसी की हिज्र में इस दिल पे क्या गुज़री
करे सय्याद क्यूँ पर्वा किसी बिस्मिल पे क्या गुज़री

निसार-ए-शमअ' हो जाना तो परवाने की फ़ितरत है
न पूछो ख़ाक होने से मिरे महफ़िल पे क्या गुज़री

शबिस्तान-ए-मुसर्रत में जो महव-ए-ऐश-ओ-इशरत हैं
उन्हें इस का पता क्या रहरव-ए-मंज़िल पे क्या गुज़री

जुनून-ए-क़ैस पर हँसते तो हैं अक़्ल-ओ-ख़िरद वाले
किसे मा'लूम है ख़ुद लैली-ए-महमिल पे क्या गुज़री

उसे ऐ काश ये मा'लूम हो जाए किसी सूरत
कि उस की बे-रुख़ी से 'क़ादरी' के दिल पे क्या गुज़री