बख़्श दे कुछ तो ए'तिबार मुझे
प्यार से देख चश्म-ए-यार मुझे
रात भी चाँद भी समुंदर भी
मिल गए कितने ग़म-गुसार मुझे
रौशनी और कुछ बढ़ा जाऊँ
सोज़-ए-ग़म और भी निखार मुझे
कुछ ही दिन में बहार आ जाती
और करना था इंतिज़ार मुझे
देख दुनिया ये पैंतरे न बदल
देख शीशे में मत उतार मुझे
आईने में नज़र नहीं आता
अपना चेहरा कभी-कभार मुझे
किस क़दर शोख़ हो के तकता था
रात बंद-ए-क़बा-ए-यार मुझे
देख मैं साअत-ए-मसर्रत हूँ
इतनी उजलत से मत गुज़ार मुझे
मरकब-ए-ख़ाक पर सवार हूँ मैं
देख ऐ शहर-ए-ज़र-निगार मुझे
रिज़्क-ए-मक़्सूम खा के जीना था
खा गई फ़िक्र-ए-रोज़गार मुझे

ग़ज़ल
बख़्श दे कुछ तो ए'तिबार मुझे
मजीद अख़्तर