बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!
अजब क़िस्सा है सब कुछ जान कर मुबहम समझते हैं
हवाएँ तेज़-तर हैं आज बादल आने वाले हैं
तड़पते सर्द झोंकों को भी सब मौसम समझते हैं
ज़मीं करवट बदलती है नए रंगों में ढलती है
नुजूमी किस तरह दुनिया के पेच-ओ-ख़म समझते हैं
फ़लक ग़ाएब हुआ ये चाँद तारे ख़ाक-दाँ से हैं
इन्हें भी लोग इक दुनिया नया आलम समझते हैं
बहुत दाना-ए-राज़ आए हज़ारों नुक्ता-दाँ आए
समझने के लिए वो ज़िंदगी को ग़म समझते हैं
हुई तख़्लीक़ कैसे आज तक कोई नहीं समझा
निकाले कब गए ये हज़रत आदम समझते हैं
न कोई अश्क-शोई है न चेहरा ज़र्द है 'बाक़र'
हमारी ख़ामुशी को फिर भी वो मातम समझते हैं
ग़ज़ल
बहुत ज़ी-फ़हम हैं दुनिया को लेकिन कम समझते हैं!
बाक़र मेहदी