बहुत था नाज़ जिन पर हम उन्हीं रिश्तों पे हँसते हैं
हमीं क्या रस्म-ए-दुनिया है कि सब अपनों पे हँसते हैं
हम ऐसे लोग दीवारों पे हँसने के नहीं क़ाइल
मगर जब जी में आता है तो दरवाज़ों पे हँसते हैं
दिवाना कर गया आख़िर हमें फ़रज़ाना-पन अपना
कि जिन लोगों को रोना था हम उन लोगों पे हँसते हैं
अब इस को ज़िंदगी कहिए कि अहद-ए-बे-हिसी कहिए
घरों में लोग रोते हैं मगर रस्तों पे हँसते हैं
यहाँ अपना पराया कुछ नहीं ख़ुशबू पे मत जाओ
गलों में पड़ने वाले फूल गुलदस्तों पे हँसते हैं
समझने वाले क्या क्या कुछ समझते हैं 'शरर'-साहब
रग-ए-मअनी फड़कती है तो हम लफ़्ज़ों पे हँसते हैं
ग़ज़ल
बहुत था नाज़ जिन पर हम उन्हीं रिश्तों पे हँसते हैं
कलीम हैदर शरर