बहुत तल्ख़ हैं ज़िंदगी के फ़साने
मिरे ख़्वाब हैं फिर भी कितने सुहाने
सहारा न देती अगर मौज-ए-तूफ़ाँ
डुबो ही दिया था हमें ना-ख़ुदा ने
सहर को तो आना है आ कर रहेगी
कटे कैसे लेकिन ये शब कौन जाने
गिरी और गिरती रही बर्क़-ए-सोज़ाँ
बने और बनते रहे आशियाने
सितारों से आगे बहुत कुछ है माना
ज़मीं पर भी जीने के हों कुछ बहाने
'कलीम' आज क्या सोच कर हो गए चुप
अरे आ गए याद कब के ज़माने
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ग़ज़ल
बहुत तल्ख़ हैं ज़िंदगी के फ़साने
मकीन अहसन कलीम