बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैं
हम आज हम-रह-ए-गुम-गश्तगाँ गए हुए हैं
अगरचे आए हुओं ही के साथ हैं हम भी
मगर गए हुओं के दरमियाँ गए हुए हैं
नज़र तो आते हैं कमरों में चलते-फिरते मगर
ये घर के लोग न जाने कहाँ गए हुए हैं
सहर को हम से मिलो गो कि शब में भी हैं यहीं
ये कोई ठीक नहीं कब कहाँ गए हुए हैं
कहीं से लौट के क़िस्से सुनाएँगे तुम को
कहीं सुनाने को हम दास्ताँ गए हुए हैं
तलाशिए फिर इन्हीं में तराशिये फिर इन्हें
यही वसीले कि जो राएगाँ गए होते हैं
अभी तअय्युन-ए-सतह-ए-कलाम क्या पूछो
अभी तो हम तह-ए-इज्ज़-ए-बयाँ गए हुए हैं
बजा कि राज़ की बातें बताएँगे तुम्हें 'साज़'
मगर सँभल ही के सुनना मियाँ गए हुए हैं
ग़ज़ल
बहुत मलूल बड़े शादमाँ गए हुए हैं
अब्दुल अहद साज़