बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
कि लम्हा लाख इम्कानात का था
बचा ली थी ज़िया अंदर की उस ने
वही इक आश्ना अब रात का था
रफ़ाक़त क्या कहाँ के मुश्तरक ख़्वाब
कि सारा सिलसिला शुबहात का था
बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
मगर वो आदमी चुप ज़ात का था
हिनाई हाथ का मंज़र था 'बानी'
कि ताबिंदा वरक़ इसबात का था
ग़ज़ल
बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
राजेन्द्र मनचंदा बानी