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बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था | शाही शायरी
bahut kuchh muntazir ek baat ka tha

ग़ज़ल

बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
कि लम्हा लाख इम्कानात का था

बचा ली थी ज़िया अंदर की उस ने
वही इक आश्ना अब रात का था

रफ़ाक़त क्या कहाँ के मुश्तरक ख़्वाब
कि सारा सिलसिला शुबहात का था

बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
मगर वो आदमी चुप ज़ात का था

हिनाई हाथ का मंज़र था 'बानी'
कि ताबिंदा वरक़ इसबात का था