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बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू | शाही शायरी
bahut jabin-o-ruKH-o-lab bahut qad-o-gesu

ग़ज़ल

बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू

ताबिश देहलवी

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बहुत जबीन-ओ-रुख़-ओ-लब बहुत क़द-ओ-गेसू
तलब है शर्त-ए-सुकूँ के हज़ार-हा पहलू

जो बे-ख़ुदी है सलामत तो मिल ही जाएगा
बरा-ए-फ़ुर्सत-ए-अंदेशा यार का ज़ानू

हज़ार दश्त-ए-बला हल्क़ा-ए-असर में हैं
मिरा जुनूँ है कि चश्म-ए-ग़ज़ाल का जादू

ये राज़ खोल दिया तेरी कम-निगाही ने
सुकूँ की एक नज़र दर्द के बहुत पहलू

सबा हज़ार करे बू-ए-गुल की आमेज़िश
न दब सकेगी तिरे जिस्म-ए-नाज़ की ख़ुश्बू

इक इज़्तिराब-ए-हसीं है फ़िशार-ए-तंगी-ए-मय
कनार-ए-शौक़ में तू है कि दाम में आहू

बहुत है अहल-ए-बसीरत को एक जल्वा भी
वफ़ूर-ए-तिश्ना-लबी हो अगर तो ख़म है सुबू

जुनूँ और अहल-ए-जुनूँ का वो क़हत है 'ताबिश'
उठा न दश्त से फिर कोई नारा-ए-याहू