बहर-ए-ग़म में दिल का क़रीना
लाखों मौजें एक सफ़ीना
टूटा है दिल शक़ है सीना
देख कर उस ज़ालिम का क़रीना
भीग गई दुनिया-ए-मोहब्बत
आया था कुछ मुझ को पसीना
शाख़ें फूटीं कलियाँ चटकीं
आ पहुँचा फागुन का महीना
हाल भी मेरा आप न पूछें
इतनी रंजिश इतना कीना
मर जाना तकमील-ए-वफ़ा में
है मेराज का पहला ज़ीना
मेरी गर्दन तेरा ख़ंजर
तेरी बर्छी मेरा सीना
बर्क़ बला या बर्क़ अदा हो
दोनों का है एक क़रीना
क्या हो सुकूँ ऐ बहर-ए-मोहब्बत
साहिल से है दूर सफ़ीना
जलता हूँ तेरी महफ़िल में
जन्नत में दोज़ख़ का क़रीना
हिज्र का आलम याद है मुझ को
इक इक दिन एक एक महीना
मौत की सख़्ती मैं ने समझी
माथे पर निकला जो पसीना
शम्अ के दम से बज़्म मुनव्वर
कहने को मेहमान-ए-शबीना
कोई जाबिर कोई साबिर
इक मेरा इक उन का क़रीना
हिल जाओ भी खुल खेलो भी
अच्छा दिन अच्छा है महीना
उन्हें मेरे दिल से उमंगें
ग़र्क़ किया मौजों ने सफ़ीना
दिल को फ़ुग़ाँ पहुँचाए फ़लक तक
नीची छत है ऊँचा ज़ीना
फिर उठा तूफ़ान-ए-मोहब्बत
'नूह' करें तय्यार सफ़ीना
ग़ज़ल
बहर-ए-ग़म में दिल का क़रीना
नूह नारवी