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बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए | शाही शायरी
bahaar aai hai aaraish-e-chaman ke liye

ग़ज़ल

बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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बहार आई है आराइश-ए-चमन के लिए
मिरी भी तब्अ' को तहरीक है सुख़न के लिए

ख़याल तक न किया अहल-ए-अंजुमन ने कभी
तमाम रात जली शम्अ' अंजुमन के लिए

वतन में आँख चुराते हैं हम से अहल-ए-वतन
तड़पते रहते हैं ग़ुर्बत में हम वतन के लिए

चमन के दाम से जाएँगे हम कहाँ सय्याद
क़फ़स फ़ुज़ूल है परवर्दा-ए-चमन के लिए

मैं क़ैद-ए-अश्क से आज़ाद हूँ मोहब्बत में
कि तुझ को शम्अ' बनाना है अंजुमन के लिए

ज़बान-ए-अहल-ए-बसीरत पे अर्ज़ हैरत है
सुकूत दाद है गोया मिरे सुख़न के लिए

फ़रोग़-ए-तब-ए-ख़ुदा-दाद गरचे था 'वहशत'
रियाज़ कम न किया हम ने क्स्ब-ए-फ़न के लिए