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बहार आई गुलों को हँसी नहीं आई | शाही शायरी
bahaar aai gulon ko hansi nahin aai

ग़ज़ल

बहार आई गुलों को हँसी नहीं आई

कालीदास गुप्ता रज़ा

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बहार आई गुलों को हँसी नहीं आई
कहीं से बू तिरी गुफ़्तार की नहीं आई

कुछ और वजह है कम हो गई है लज़्ज़त-ए-जाम
हमारी प्यास में कोई कमी नहीं आई

ये काएनात सब आग़ोश-ए-नीम-शब में है
ज़माना हो गया आवाज़ ही नहीं आई

दिल इक दरख़्त-ए-ज़मीं-बोस बाद ओ बाराँ से
रुतें गुज़र गईं कोंपल नई नहीं आई

न जाने कैसी घड़ी से गुज़र रहे थे हम
कि जागते न रहे नींद भी नहीं आई