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बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में | शाही शायरी
bah raha tha ek dariya KHwab mein

ग़ज़ल

बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में

आलम ख़ुर्शीद

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बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में
रह गया मैं फिर भी तिश्ना ख़्वाब में

जी रहा हूँ और दुनिया में मगर
देखता हूँ और दुनिया ख़्वाब में

इस ज़मीं पर तू नज़र आता नहीं
बस गया है जो सरापा ख़्वाब में

रोज़ आता है मिरा ग़म बाँटने
आसमाँ से इक सितारा ख़्वाब में

मुद्दतों से दिल है उस का मुंतज़िर
कोई वा'दा कर गया था ख़्वाब में

क्या यक़ीं आ जाएगा उस शख़्स को
उस की बाबत जो भी देखा ख़्वाब में

एक बस्ती है जहाँ ख़ुश हैं सभी
देख लेता हूँ मैं क्या क्या ख़्वाब में

अस्ल दुनिया में तमाशे कम हैं क्या
क्यूँ नज़र आए तमाशा ख़्वाब में

खोल कर आँखें पशेमाँ हूँ बहुत
खो गया जो कुछ मिला था ख़्वाब में

क्या हुआ है मुझ को 'आलम' इन दिनों
मैं ग़ज़ल कहता नहीं था ख़्वाब में